साधना से सिद्धि का अर्थ है-अपने आप को साधना । जिन देवी-देवताओं की साधना की जाती है, वस्तुतः अपनी ही विभूतियाँ एवं सत्प्रवृत्तियाँ हैं । इन विशेषताओं के प्रसुप्त स्थिति में पड़े रहने के कारण हम दीन-दरिद्र बने रहते हैं किन्तु जब वे जागृत, प्रखर एवं सक्रिय बन जाती हैं, तो अनुभव होता है कि हम ऋद्धि-सिद्धियों से भरे-पूरे हैं ।
पुस्तक का विवरण / Book Details | |
Book ka Name | साधना से सिद्धि | Sadhana Se Siddhi |
write by | Pt. Shriram Sharma Acharya |
Size | 30.8 MB |
Download Status | Available |
Category | अध्यात्मिक / Spiritual, दर्शन शास्त्र / Philosophy |
Language / भाषा | हिंदी / Hindi |
Pages | 154 |
Quality | Good |
मनुष्य की मूल सत्ता एक जीवन्त कल्पवृक्ष की तरह है। ईश्वर ने उसे बहुत कुछ सब कुछ देकर इस संसार में भेजा है। समुद्र तल में भरे मणिमुक्ताओं की तरह भूतल में दबी रत्न राशि की तरह मानवी सत्ता में भी असंख्य संपदाओं के भण्डार भरे पड़े हैं। किन्तु वे सर्वसुलभ नहीं हैं, प्रयत्नपूर्वक उन्हें खोजना खोदना पड़ता है। जो इसके लिये पुरुषार्थ नहीं जुटा पाते वे खाली हाथ रहते है किन्तु जो प्रयत्न करते हैं उनके लिये किसी भी सफलता की कमी नहीं रहती ।
इसी प्रयत्नशीलता का नाम साधना है । स्पष्ट है कि अपने आप को सुविकसित, समुन्नत एवं सुसंस्कृत बना लेना ही देवाराधना का एक मात्र उद्देश्य है । अपनी ही सत्प्रवृत्तियों को अलंकारिक भाषा में देव-शक्तियों कहा गया है और उनकी विशेषताओं के अनुरूप उनके स्वरूप, वाहन, आयुध, अलंकार आदि का निर्धारण किया गया है । साधना उपासना के क्रिया-कृत्य में यही रहस्यमय संकेत-सन्देश सन्निहित है कि हम अपने व्यक्तित्व को किस प्रकार समुन्नत करें और जो प्रसुप्त पड़ा है, उसे जागृत करने के लिये क्या कदम उठायें ? सच्ची साधना वही है, जिसमें देवता की मनुहार करने के माध्यम से आत्म निर्माण की दूरगामी योजना तैयार की जाती और सुव्यवस्था बनायी जाती है।
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मानवी व्यक्तित्व में सन्निहित सम्भावनाओं का कोई पारावार नहीं । ईश्वर का ज्येष्ठ पुत्र होने के नाते उसे अपने पिता से सभी विभूतियाँ उत्तराधिकार में मिली हैं । व्यवस्था नियन्त्रण इतना ही है कि जब उस रत्न राशि की उपयोगिता-आवश्यकता समझ में आ जाय
तभी वे मिल सकें । पात्रता के अनुरूप अनुदान मिलने की सुव्यवस्था अनादिकाल से चली आ रही है। इसी परीक्षा में खरे उतरने पर लोग एक से एक बढ़कर अनुदान प्राप्त करते रहे हैं । फलस्वरूप सिद्धि मिलने का सिद्धान्त अकाट्य है। देवी-देवताओं को साधना के माध्यम बनाकर वस्तुतः हम अपने ही व्यक्तित्व की साधना करते हैं । अनगढ़ आदतों की बेतुकी इच्छाओं और अस्तव्यस्त विचारणाओं को सभ्यता एवं संस्कृति के शिकंजे में कस कर ही मनुष्य ने प्रगतिशीलता का वरदान पाया है ।
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